कभी-कभी जीवन में ऐसे मोड़ आ जाते हैं जिनकी हमने कल्पना भी नहीं की होती।
मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि मैं कभी भी भौतिक संस्कृति का झंडाबरदार नहीं रहा हूँ।
हमारे समय में ‘मॉर्निंग वॉक’ व्यायाम का एकमात्र पर्याय मानी जाती थी — और वह भी प्रायः रिटायरमेंट के बाद ही शुरू होती थी।
कभी-कभी माताएँ दुबले या मोटे होने पर अपनी राय देती थीं — बहू मोटी हो रही है, दामाद बहुत दुबला है — इस पर घर की महिलाओं में चिंता व्यक्त करना आम बात थी।
हाँ, जब सर के बाल झड़ने लगते तो लोग तरह-तरह के नुस्ख़े भी बताते — “फलाँ तेल लगाओ”, “मालिश करो” वगैरह।
पर जब से योगा का व्यवसायीकरण हुआ, लोग बालों की रक्षा के लिए नाखून रगड़ते नज़र आने लगे। इतना आसान उपाय तो किसी थेरेपी में भी नहीं होता।
और फिर आ गया सोशल मीडिया।
जब सूचना क्रांति आई और हर हाथ में Instagram आ गया, तब ‘आकाशवाणी’ (रेडियो वाली नहीं — सीधे आकाश से उतरने वाली वाणियाँ) पर विश्वास करने वाले ‘रील’ के भी भक्त बन गए।
विश्वगुरु बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले इस देश में अचानक एक पूरा जत्था पैदा हो गया जो OHCD (Obsessive Health Consciousness Disorder) से ग्रस्त था।
इन नए-नए ‘इन्फ़्लुएंसर्स’ ने स्वास्थ्य के ऐसे चमत्कारिक नुस्ख़े पेश किए कि नींबू पानी ‘जीवनामृत’ बन गया और उल्टा लटकना दीर्घायु का शॉर्टकट।
शीर्षासन छोड़िए, मुझे तो शवासन को छोड़कर कोई भी आसन तर्कसंगत नहीं लगता।
अच्छे-भले मनुष्य योनि में जन्मे लोग जब ‘कैट-काऊ’ बनकर जानवरों जैसी मुद्राएँ करने लगते हैं तो चिंता होना स्वाभाविक है।
कपालभाति की धौंकनी जैसी ध्वनि मुझे विचलित करती है।
मॉर्निंग वॉक के दौरान अट्टहास करते लोगों को देखकर मुझे हीनता का अनुभव होता है — लगता है कोई बात तो ऐसी है जो मुझे समझ में नहीं आ रही और यही उनकी हँसी का कारण है।
पर नहीं — अकारण हँसना ही एक व्यायाम बन गया है।
काश, इनकी ज़िन्दगियों में थोड़ा-सा ‘सेंस ऑफ़ ह्यूमर’ होता तो इन्हें यूँ ज़ोर लगाकर हँसना न पड़ता।
हालाँकि ताली बजाने वालों से भी मेरा ‘हरि ओम’ हो चुका है — पर सार्वजनिक स्थान पर इस प्रकार की हरकतें!
व्यायाम के और भी आयाम हैं, जैसे जिम जाना।
वहाँ मशीन पर बिना वजह भागता इंसान मुझे विचित्र लगता है। जी करता है मशीन का पॉवर ऑफ करके पूंछे भैया कौन पीछे पड़ा है।
खड़ी हुई साइकिल पर तीव्र गति से पैडल मारते व्यक्ति को रोककर कहने का मन करता है — “भाई, ये चल ही नहीं रही खड़ी है, कहे पैडल भांजे ho?”
व्यंग्यकार की मुश्किल यही होती है कि जो बात समझ में नहीं आती उस पर हँसी आती है, और जिस पर हँसी आती है, वह बात समझ में नहीं आती।
पर समाज ने इसे अपना लिया है।
चारों ओर के सामाजिक दबाव से अपने प्राण बचाने के लिए मैंने भी उम्र के 62वें वर्ष में ‘प्राणायाम’ को अपने जीवन में प्रवेश दे दिया है।
अब आप लोग भी साँस को धीरे-धीरे छोड़िए — हमारा व्यंग्य-व्यायाम यहीं समाप्त होता है।
हरि ओम — अनुलोम-विलोम।