बिग बॉस एक अद्भुत प्रयोग है. इसकी खोज तमाम अन्य ज़रूरी और ग़ैर ज़रूरी खोजो की तरह विदेश में तब हुई जब ‘बिग ब्रदर’ के नाम से सन 1997 में, प्रोडूसर जॉन दे मॉल ज्यूयर ने डच में इसी शीर्षक का एक शो लांच किया जिसमे उन्होंने एक विशेषत: बनाये घर में कुछ ‘ग्रह अतिथि’ प्रतियोगियों को तम्मम कैमरों की निगरानी में छोड़ दिया।
मनोविज्ञान की माने तो हर एक इंसान में एक ना एक पशु प्रविर्ति (animal instinct) छिपी होती है जो अति अनकूल या अति प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने को ज़ाहिर करती हैं। और अति अनकूल या प्रतिकूल परिस्थित्यों का निर्माण करना ही इस रियलिटी शो के विचार का जनक होगा।
सन 2000 में ये शो अमरीका पहुँचा और वहाँ पर भी दर्शकों ने इसको खूब सराहा तब शुरू हुआ इसका ग्लोबिलीकरण। अमरीकी सांस्कृतिक निर्यात के चलते स्पेन से होता हुआ ये शो भारत में 2006 में पहुँचा। और चाऊमीन को देसी बनाने वाली मानसिकता/कला ने इसको बिग बॉस के स्वरूप में प्रस्तुत किया।
पर यहाँ इस अतिथि ग्रह को मनोव्याज्ञिक प्रयोग शाला की बजाय एक चिड़ियाघर का स्वरूप ज़्यादा बना दिया गया है जहाँ अपनी पशु प्रविर्ति तलाश करते कुछ प्रतियोगी और उनको विभिन्न दिशाओं में हाँकने के लिए एक रिंग मास्टर सलमान ख़ान। जो पहले कुछ एपिसोड्स में कुछ करो कुछ करो कह कर प्रतियोग को कुछ करने के लिए उत्साहित/मजबूर करते हैं और उसके बाद के एपिसोड्स में ये क्या कर रहे हो ये कैसे कर रहे हो की रट लगा कर सार्वजनिक रूप से अपमानित।
शो उतना ही रीयल है जितना की सलमान ख़ान की फ़िल्में होती हैं। और स्क्रिप्ट उतनी ही विसंगत। लोगों की जन्म प्रक्रिया से लेकर उनकी औक़ात के मूल्यांकन तक सभी प्रकार की टिप्पड़ियों मुखर रूप से की जाती हैं।
और अपने जीवन की वास्तिकताओं से जूझ रहे दर्शक को दूसरे के जीवन की कड़ुवाहट का आनंद लेना अत्यंत सुखद अनुभव लगता है वो रोज़ जिन पशु प्रवित्रिओं को दबाने के लिए संघर्ष करता है उनको मुखर रूप से प्रदर्शित करने वाले प्रतिएगियों से उसे लगाव हो जाता है।
तो मनोविज्ञान की प्रयोगशाला हो या एक खूबसूरत सा चिड़ियाघर, मनोरंजन के लिए सब कुछ जायज़ है।बिग बॉस की साख भले ही धुंधली हो गई हो, आँख अभी भी तेज है।